नज़ीर अकबराबादी (1735-1830)
कोई 200 साल पहले होली के हुड़दंग पर नज़ीर अकबराबादी की नज़्म:-
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जब फागुन रंग झमकते हों,
तब देख बहारें होली की।
और दफ के शोर खड़कते हों,
तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों,
तब देख बहारें होली की।
खम शीशये जाम छलकते हों,
तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों,
तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का,
बैठे हों गुल रंग भरे।
कुछ भीगी ताने होली की,
कुछ नाज़ो-अदा के ढंग भरे।
दिल भूले देख बहारों को और कानो में आहंग भरे।
कुछ तबले खड़के रंग भरे,कुछ ऐश के दम मुहचन्ग भरे।
कुछ घुंघरू ताल झनकते हों,
तब देख बहातें होली की।
सामान जहाँ तक होता है ,
इस इशरत1 के मतलुबों2 का।
वो सब सामान मुहैया हो,
और बाग़ खिला हो खूबों का।
हर आन शराबें ढलती हों ,
और ठठ हो रंग के डुबों का।
इस ऐश मजे के आलम में ,
इक गोल खड़ा महबूबों का।
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों ,
तब देख बहारें होली की।
गुलज़ार खिलें हों परियों के,
और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से ,
खुशरंग अजब गुलकारी हो।
मुह लाल, गुलाबी आँखे हों,
और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को,
अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों,
तब देख बहारें होली की।
(1 इशरत = ऐश, खुशदिली, मौज मस्ती
2 मतलूब = इच्छा रखने वाला)
होली की शुभकामनायें......
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